हमारे सुरसाज़
चाहे तोड़ दो हमारे साज़ अय मुल्ला
साज़ हमारे पास हजारों और भी हैं
इश्क़ के पन्जों में हम गिर गए जो
क्या फ़िक्र जो बाजे-बन्सी कम हुए हैं
सारे जहाँ के साज़ जो जल भी जाएँ
बहुत सुरसाज़ तो भी छिप कर खड़े हैं
तरंग और तान उनकी गई आसमां तक
मगर उन बहरे कानों में कुछ आता नहीं है
दुनिया के चराग़ व शमा सब बुझ भी जाएँ
तो ग़म क्या, चकमक जहां में कम नहीं है
ये नग़मा तो एक तिनका दरिया के ऊपर
गौहर दरिया की सतह पर आता नहीं है
पर हुस्न उस तिनके का जानो गौहर से
उस चौंध की अक्स की अक्स हम पर गिरी है
ये नग़में सारे वस्ल के शौक़ की हैं शाख़ें
और मूल और शाख़ कभी बराबर नहीं हैं
तो बन्द कर ये मुँह और दर खोल दिल का
उस राह से बातें रूहों से फिर किया कर
(कुल्लियाते दीवाने शम्स तबरेज़ी में ग़ज़ल संख्या 11,
चकमक-आग जलाने का पत्थर, गौहर-मोती)